" शुभागमन ढ़ाक, धुनूची नृत्य, संध्या आरती, शंख के साथ-साथ उलू-उलू की ध्वनि और दुर्गा-दुर्गा का उच्चारण पश्चिम बंगाल का सबसे प्रमुख त्यौहार और बंगाली समुदाय में अद्वितीय उत्साह के साथ मनाया जाने वाला यह दुर्गा पूजा उत्सव जिसे बंगाल में दुर्गो पूजो कहते हैं।
बंगालियों का सबसे प्रतीक्षित त्यौहार अश्विन ( सितम्बर-अक्टूबर ) के महीने में आयोजित किया जाता है। यह त्यौहार देवी दुर्गा के कैलाश पर्वत से अपने घर में आने का प्रतीक है। देवी ने राक्षस महिषासुर वध किया इसलिए यह बुराई पर अच्छाई का उत्सव है। यह उत्सव दस दिनों तक मनाया जाता है और षष्ठी से नवमी तक देवी दुर्गा की भव्य मूर्तियों वाले पंडाल दर्शकों के लिए रात-दिन खुले रहते हैं। कोलकाता में दुर्गा पूजा समारोह के उत्सव की सही तुलना एक मात्र मुंबई में मनाये जाने वाले उत्सव गणेश चतुर्थी से ही की जा सकती है।
अपने महंगे पंडाल और शानदार मूर्तियों के साथ यह उत्सव कोलकाता में एक अकल्पनीय महोल लेकर आता है। पारंपरिक पूजा विधि से लेकर भव्य रचनात्मक पंडाल कोलकाता शहर के लोगो में एक आनन्द की ऊर्जा और जोश भर देता है।
उपल्ब्ध पुरातात्विक और पाठ्य साक्ष्यों के अनुसार दुर्गा हिंदू धर्म की एक प्रचीन दैवी हैं। 17वी और 18वी सदी में राजा, जमीदार और सम्पन्न लोग ही बड़े स्तर पर दुर्गा पूजा का आयोजन करते थे।
उत्तरी कोलकाता में कुमारटोली हुगली तट पर स्थित वह श्रेत्र है जहां पूजा के लिए मूर्ति निर्माण की विरासत है। कुमारटोली की बस्ती में कुम्हार पीढ़ी दर पीढ़ी पूजा के लिए मूर्ति का निर्माण करते आ रहे हैं। कुमारटोली से मूर्तियाँ केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों तक भेजी जाती हैं। यहाँ दुर्गा माँ एवं अन्य देवी-देवताओं की मूर्ति ढालने की प्रक्रिया बड़े ही व्यवस्थित तरीके से पूरी की जाती है। यहाँ के कुम्हार एक प्रमुख कलाकार की भूमिका निभाते हैं। मूर्ति निर्माण की सामाग्री संग्रह, मोल्ड़िंग, पेन्टिंग और सजावट सहित मूर्ति बनाने के विभिन्न चरण होते हैं। मूर्ति बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले मुख्य घटकों में बांस, पुआल, भूसी और पुनिया माटी शमील होती है।
पुनिया माटी पवित्र गंगा नदी के किनारे की मिट्टी, गोबर, गोमुत्र और वेश्यालय की मिट्टी का मिश्रण हैं। सदियों पुरानी यह परंम्परा आज भी निभाई जा रही है।
सबसे पहले बांस की खपच्चियो, पुआल और भूसी के उपयोग से मूर्तियों को मूल आकार दिया जाता है। विशेष कर माँ दुर्गा का चेहरा मूर्ति का सबसे जटिल हिस्सा होता है क्योंकि पूजा में दुर्गा माँ के भावों पर से किसी की दृष्टि नहीं हटती है। विशाल गहरी एंव सुन्दर आखों वाली आकर्षक मुख आकृति उग्र रूप में भी शांत दिखने वाली अत्यन्त सावधानी एवं कुशलता से तराशी जाती हैं। मूर्ति के सूखने के बाद इसे आकर्षक रंगों से सजाया जाता है। इसके बाद भव्य वस्त्र, सुन्दर आभूषण एवं अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित किया जाता है। माँ दुर्गा जब घर आती है तो वह अकेले नहीं आती उनके साथ गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती अर्थात् उनका पूरा परिवार साथ आता है। विशाल पंडालों का निर्माण बांस की लकड़ी, रंगीन कपड़ों एवं अन्य सजावट के सामानों द्वारा किया जाता है जिनकी शोभा देखते ही बनती है।
राजा, जमींदारों का अस्तित्व समाप्त होने के बाद राजवड़ियो से बहार निकल कर कम्यूनिटी पूजा के रूप में सड़कों और काँलोनियों में पंडाल स्थापित होने लगे हैं।
कोलकाता शहर इन दस दिनों तक रोशनी से जगमगाता रहता है। ढ़ाक, ढोल और शंख की ध्वनि वातावरण को उमंग एवं उत्साह से भर देती है। दुर्गा पूजा के अनुभव को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है यह एक ऐसा एहसास है जिसे बस आप उसमें सम्मिलित होकर ही उसकी अनुभूति कर सकते हैं। अनेक सांस्कृतिक क़ल्ब नृत्य एवं अन्य कलाओं का पंडालों में आयोजन करते हैं। इस प्रकार पूजा पंडाल दुर्गा माँ के भक्तों को ही नहीं बल्कि सास्कृतिक के प्रशंसकों को भी आकर्षित करते हैं। जैसे ही आप किसी भी पूजा पंडाल में जाने वाली राह में कदम रखते हैं और पंडाल में पहँचते ही एक विशिष्ट अनुभूति महसूस करते हैं और इससे पहले कि आप संभल पाएँ आप ढ़ाक की धुन और धुनूची नृत्य की लय में खो जाते हैं। यह एक अद्भुत अनुभव होता है जो नवरात्रि के दौरान एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति करता है। दुर्गा पूजा के इन दिनों सभी विभिन्न प्रकार सुन्दर एवं पारम्परिक पोशाक पहनते हैं। महिलाओं के लिए साड़ी और पुरुषों के लिए धोती-कुर्ता से बेहतर कुछ और हो ही नहीं सकता है। सज-धज के लोग पंडालों का भम्रण करते हैं। पंडाल सजाने की प्रतिस्पर्धा होती है और सबसे अच्छे पूजा पंडालों को पुरस्कृत किया जाता है। पंडालों की सजावट उनमें बनी कला कृतियां तथा रोशनी की सजावट ढ़ाक से संधि पूजा, धुनूची नृत्य से सिन्दूर खेला प्रत्येक अनुष्ठान का अपना एक महत्व है।
दशमी अर्थात दशहरा के दिन दुर्गा माँ को सपरिवार विदाई दी जाती है और विसर्जन के लिए तैयार किया जाता है। विसर्जन से पहले देवी वोरांन के नाम से प्रथा की जाती है। विवाहित महिलाएं लाल बार्डर वाली साड़ी पहनती हैं। देवी दुर्गा की आरती की जाती है और देवी माँ को मिठाई और पान के पत्ते भी चढ़ाए जाते हैं। इसके बाद दुर्गा माँ के माथे और पैरों में सिन्दूर लगाती हैं और देवी माँ से सौभाग्य वर्धन की कामना करती हैं। इसके पश्चात एक दुसरे के माथे पर सिन्दूर लगाती हैं और देवी माँ से सौभाग्य वर्धन की कामना करती हैं। इसके पश्चात एक दुसरे के माथे पर सिन्दूर लगाती हैं और गुलालों के रंगों से खेलती हैं। इस अनुष्ठान को दुर्गा की विदाई के रूप में सिन्दूर खेला कहा जाता है।
दुर्गा पूजा के उत्सव विसर्जन समारोह के साथ समाप्त होता है। आस पड़ोस के सब लोग एकत्रित होते हैं एक दुसरे के उपर गुलाल डालते हैं, संगीत की धुन पर तब तक नृत्य करते हैं जबतक मूर्तियों गंगा के पवित्र जल में विसर्जित न कर दिया जाये। इसे भसान के रूप में जाना जाता है। प्रमुख घाटों पर विसर्जन की प्रक्रिया देखने लायक होती है।
यह बंगाल की सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का आनन्द उठाने का सबसे उपयुक्त समय दुर्गा पूजा उत्सव है जब यहाँ आप अपना एक अच्छा समय व्यतीत करने की पूर्ण आशा कर सकते हैं।
14 comments:
दुर्गा पूजा का बहुत सुंदर चित्रण 👌
दुर्गा पूजा का बहुत सुंदर चित्रण 👌
Well written
Beautiful depiction of the excitement & importance of the Durga Puja festival in our lives
👍👍👏👏
Hi!
Hope you all would enjoy reading my this new article " पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा उत्सव " .
Thx
Well written . But the essence of the Puja is lost in all the cacophony of noise of all the cinema music and pop culture now . Though it is still maintained by the heritage zamindar families and they are worth seeing and feeling the true Puja festival of Bengal.
Good 👍 👍
Thanks
Thanks for sharing your views.
Thanks Shalini
Thank you
Thanks Shalini
धन्यवाद
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