# कर्म

# हमारे कर्म ही निर्धारित जीवन की दिशा 

                                     " देवेश चतुर्वेदी "


articlesdev.com कर्म


संसार में कभी भी कोई व्यक्ति सहज ही किसी के लिए प्रिय या अप्रिय नहीं हो जाता है। हमारे कर्म ही हमें हमारे उत्थान या पतन की ओर ले जाते हैं।
 कर्म क्या है ? 
हम सभी सुनते हुए आ रहे हैं कि ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ लेकिन यह कितना सच है धार्मिक विश्वास के बहार यह साबित करना कठिन हो जाता है क्योंकि कर्म एक ऐसी मान्यता है जो हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म और जैन धर्म की प्रथा से आती है।
 कर्म अच्छे कार्यों एवं अच्छे विचारों के द्वारा प्राप्त होते हैं। मनुष्य आपके साथ कैसा व्यवहार करता है यह उसका कर्म है एवं आप कैसी प्रतिक्रिया देते हैं यह आपका कर्म है। जब कोई व्यक्ति आपसे मधुर भाषा का उपयोग करते हैं तो आप प्रसन्नता महसूस करते हैं और जब कोई आपसे अप्रिय वचन कहता है तो आप व्याकुल हो उठते हैं। इसलिए हमेशा याद रखें कि कर्म निःस्वार्थ प्रेम पर आधारित है।
 हमारे कर्म ही हमारे जीवन को निर्मल एवं दयालु बनाते हैं। अधर्म से पापी फल मिलते हैं जिन्हें हम पाप कहते हैं एवं अच्छे कर्मों से अच्छे फल मिलते हैं जिन्हें हम पुण्य कहते हैं। 
 कर्म ही यह निर्धारित करता है कि मनुष्य का पुनर्जन्म कहां एवं कैसा होगा। यदि किसी मनुष्य के पास अच्छे कर्म हैं तो वह स्वर्ग लोक में जायेगा और यदि उसके कर्म बुरे हैं तो अवश्य ही नरक लोक में तड़पेगा। 
 कर्म तीन श्रेणी में होते हैं:
 * संचित कर्म: संचित का अर्थ है एकत्रित या इकट्ठा होना। तो संचित कर्म मनुष्य के किए गए अनेकों जन्मो के कर्मों का संग्रह है। अर्थात व्यक्ति के अभी तक किए गए कर्मों का कुल योग हुआ।
 * प्रारब्ध कर्म: प्रारब्ध का अर्थ भाग्य है। प्रारब्ध कर्म संचित कर्म का वह भाग है जो हम जीवन में अनुभव करेंगे। हमारे कर्मों के अनुसार हमें किसके यहां जन्म मिलेगा यह प्रारब्ध कर्म से निर्णय होता है यानि व्यक्ति के जीवन में जो भी अच्छा-बुरा घटित होगा एवं जिन पर उस व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होगा वो प्रारब्ध है। इन पर नियंत्रण इसलिए नहीं रहेगा क्योंकि भगवान ही हमें प्रेरित कर रहे होगे हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए। इसलिए जो प्रारब्ध अच्छे हैं वह हमारे अच्छे कर्मों का फल है और जो प्रारब्ध बुरे हैं वह हमारे बुरे कर्मों का फल है।  * क्रियमाण कर्म: क्रियमाण का अर्थ है वह जो किया जा रहा है अथवा वह जो हो रहा है। व्यक्ति जो क्रियमाण कर्म करता है वह ही संचित कर्म में जाकर जमा होता रहता है। यानि वह कर्म जो व्यक्ति ने किया है कर रहा है या करेगा।
 व्यक्ति को छोटे से छोटे भी अच्छे कार्यों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए यह सोचकर कि वे किसी लाभ के नहीं हैं। परन्तु याद रखिए अंत में बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है।
सकारात्मक एवं नकारात्मक आदतें समय के साथ उत्पन्न होती हैं जिसके कारण लोगों में अच्छे या बुरे कर्म बनते हैं। इसको समझने की दृष्टि से गुटका या धूम्रपान एक सबसे अच्छा उदाहरण हो सकता है।
जब हम पहली बार सिगरेट पीते हैं तो इस से ही आगे भी सिगरेट पीने की सम्भावना निहित हो जाती है एवं हम जितना धूम्रपान करते हैं धूम्रपान करने की प्रवृत्ति उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है और अंत में हम बार-बार सिगरेट सुलगाने के आदि हो जाते हैं। निरन्तर धूम्रपान से हमारे शरीर के भीतर की भौतिक सम्भावनाएं भी प्रभावित होती हैं जैसे की धूम्रपान के कारण कैंसर का होना। यह दोनों ही हमारे पिछले बाध्यकारी कृत्यों का ही परिणाम है और इसे ही कर्मों का परिपक्व होना कहा जा सकता है।
 कर्म का अर्थ हम यह भी मान सकते हैं कि ‘मनुष्य जो बोता है वही काटता है’। लेकिन हमारे लिए यह समझना उतना आसान नहीं होता क्योंकि हमारे अलग-अलग कर्म अलग-अलग समय पर फल देते हैं। जैसे किसी भी बीज को वृक्ष बनने में समय लगता है वैसे ही कर्म करने और उसका फल प्राप्त होने में भी समय लगता है।
 कर्म ही मनुष्य को सफलता सम्मान यश और कीर्ति प्रदान करता है इसलिए कर्मशील व्यक्ति कभी उदास नहीं रहता क्योंकि कर्मशीलता और उदासी कभी भी साथ-साथ नहीं रह सकते हैं। 
 पूर्ण निष्ठा से किया कर्म हमारी चेतना का विकास करता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
 मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
 अर्थ:  कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है।
कर्म के फलों पर कभी नहीं। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो।
हमें सिर्फ अच्छा बनना एवं अच्छा करना है। न तो अतीत में देखें और न भविष्य की चिंता करनी है। अगर हम अपने वर्तमान कर्म को सफलता से करें तो भविष्य अपने आप संवर जाएगा।

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