# होली क्यों और कैसे
" देवेश चतुर्वेदी "
होली का त्यौहार बसन्त ऋतु में मनाया जाता है । इस ऋतु में मनुष्य ही नहीं अपितु पशु पक्षी वनस्पति सभी प्रफुल्लित हो जाते हैं। यह प्रेम और सद्भावना से जुड़ा है जिसमें अध्यात्म का अनोखा रूप झलकता है।
होली त्यौहार देश में प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। इस त्यौहार की शुरूआत बुंदेलखंड में झाँसी के एरच से हुई। ये हिरण्यकश्यप की राजधानी हुआ करती थी। हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु से घोर द्वेष रखता था। अपनी शक्ति के अहंकार में वह स्वयं को ईश्वर मानने लगा था और घोषणा कर दी कि राज्य में केवल उसी की पूजा की जाएगी। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। पिता के लाख समझाने एवं डराने धमकाने के बावजूद भी प्रह्लाद भगवान विष्णु की भक्ति में लगा रहा इस वजह से क्रोधित होकर हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र को मारने की कई बार कोशिश की परन्तु भगवान स्वयं अपने भक्त की रक्षा करते रहे।
हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को भगवान शंकर से ऐसी चादर मिली थी कि जिसे ओढने पर अग्नि उसे जला नहीं सकती थी। हिरण्यकश्यप के आग्रह करने पर होलिका उस चादर को ओढ़ कर प्रह्लाद को गोद में लेकर चिता पर बैठ गई लेकिन दैवयोग से वह चादर उड़ कर प्रह्लाद के ऊपर आ गई और प्रह्लाद की जान बच गई परन्तु होलिका जल गई। तब से हर बार होलिका के दहन के दिन होली जलाकर ‘ होलिका ‘ नामक दुर्भावना का अंत और भगवान द्वारा अपने भक्त की रक्षा करने का पर्व मनाया जाता है।
यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। अगले दिन सब अपने प्रियजनों को रंग लगाकर त्यौहार की शुभकामनायें देते हैं। होली के त्यौहार में अमीर- गरीब, छोटे- बड़े सब के मतभेद मिट जाते हैं। होली त्यौहार के दिन लोग नृत्य और लोकगीतों का आनन्द लेते हैं।
राधा-कृष्ण की लीलाओं एवं ब्रज की होली धुन हर गलियों में गूंजती रहती है एवं लोग आनन्द विभोर होकर भांग ठंडाई गुजिया एवं अन्य पकवान बना कर खाते और खिलाते हैं।
आज भी ब्रज की होली सारे देश के आकर्षण का केन्द्र होती है और बरसाने की लठमार होली तो बहुत ही प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं पुरुषों को लाठियों से मारती हैं। मथुरा और वृन्दावन में पंद्रह दिनों तक होली का पर्व मनाते हैं। विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्काॅन या वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर में अलग-अलग तरीके से होली का उत्सव मनाया जाता है।
आधुनिकता की धार में अब लोग परंपरागत होली से दूर होते जा रहे हैं। वर्तमान समय में होली पर्व पर शराब एवं अन्य मादक पदार्थों का चलन ने त्यौहार के रंग को फीका कर दिया है। विशेष कर शहरों में परंपरागत रंग, गुलाल, भांग, ठंडाई और गुजिया वाली होली उल्लास एवं जोश भरी होली धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।
नवयुवक परंपराओं से दूर भाग रहे हैं। आज ढोल- झांझ- मंजीरों की जगह डी. जे. एवं होली पर गाये जाने वाली होलियों की जगह अश्लील गानों ने ले ली है। अब टेसू या पलाश के फूलों से बनाए रंग एवं गुलाल की जगह घटिया और हानिकारक रासायनिक रंगों का उपयोग किया जाता है जो एकदम उचित नहीं है।
आधुनिकता के थपेडों ने होली की खुशी और मस्ती को पूरी तरह प्रभावित किया है। हमें मनभावन त्यौहार पर रासायनिक लेप एवं नशे आदि से दूर रहना चाहिए।
ब्रज की होली, मथुरा की होली, वृन्दावन की होली, बरसाने की होली, काशी एवं अनेक अन्य स्थानों की होली भारत में बहुत मशहूर है और हमें इस प्राचीन त्यौहार को इसके सच्चे स्वरूप में ही मनाना चाहिए जो प्रेम, सद्भाव एवं उल्लास का प्रतीक है।।