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मंत्र

मंत्र - स्तुति से युक्त प्रार्थना 


                         ( देवेश चतुर्वेदी )




मंत्र शब्द मन् से बना है जिसका अर्थ हुआ चिंतन अथवा मनन करना एवं त्र का अर्थ शक्ति एवं रक्षा से है अर्थात मनन शक्ति से या चिंतन के माध्यम से विशिष्ट सिद्धि पाना। मंत्रयोग किसी विशेष मंत्र के निरंतर या नियमित जप के माध्यम से कर्म – बन्धनों का क्षय करते हुए मुक्ति को प्राप्त होने की प्रक्रिया है।
मननात् त्रायते इति मंत्र :
अर्थात वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त करे वह मंत्र है। मानसिक एवं आध्यात्मिक उत्थान हेतु मंत्रों का विशेष महत्व होता है। जब हम ध्यानपूर्वक मंत्रों का जाप करते हैं तो हमारी अंतरिक शक्तियां जागृत होती हैं । मंत्रों की तरंगों में अत्यन्त शक्ति होती है। हर मंत्र की एक निश्चित ध्वनि होती है। मंत्रों की लय आवृति एवं  उच्चारण से प्राप्त ऊर्जा ही साधक की सफलता का आधार होता है। मंत्रों का त्रुटिपूर्ण उच्चारण से लाभ से अधिक हानि होने की सम्भावना होती है। सनातन धर्म में मंत्रों को लिखित रूप में देने स्थान पर कान में मंत्र बोलने की परम्परा रही है। मंत्रों का लिपिबद्ध न करने का प्रमुख कारण उच्चारण अर्थात ध्वनि या कंपन में त्रुटि के होने की सम्भावना हो सकता है। लिखे मंत्रों को पढ़ने में उच्चारण अगर बदल जाता है तो ध्वनि एवं ध्वनि का कंपन भी बदल जायेगा जिसके परिणाम स्वरूप मंत्रों से मिलने वाले लाभ पर भी प्रभाव पड़ेगा उसी लिए पीढ़ी दर पीढ़ी लोग मंत्रों को सुनकर ही उन्हें कंठस्थ कर लेते थे। 
शास्त्रों के अनुसार मंत्रों का जप पूर्ण श्रद्धा एवं आस्था से ही करना चाहिए। बिना श्रद्धा- भाव के मंत्र का जाप व्यर्थ है। विश्वास पूर्वक जाप किया मंत्र ब्रह्म के द्वार तक खोल देता है। 
भारतीय संस्कृति में मंत्र जप की परम्परा पुरातन काल से ही चली आ रही है एवं मुख्यतः मंत्रों को तीन प्रकार से श्रेणीबद्ध किया गया है जो वैदिक तांत्रिक और शाबर मंत्रों में विभक्त हैं।
वैदिक मंत्रों को सिद्ध करने में काफी समय लगता है लेकिन यदि एक बार सिद्ध हो जाये तो उनका प्रभाव स्थाई रहता है।
तांत्रिक मंत्र वैदिक मंत्र अपेक्षा जल्दी ही सिद्ध हो जाते हैं परन्तु जितनी जल्दी सिद्ध होते हैं उतनी ही जल्दी उनका प्रभाव भी समाप्त हो जाता है।
शाबर मंत्र वैदिक मंत्र और तांत्रिक मंत्रों से भी जल्दी सिद्ध होते हैं और प्रभाव भी अत्यन्त शीघ्र ही समाप्त हो जाता है।
मंत्रों का जाप तीन प्रकार से किया जाता है।
वाचिक जप में मंत्रों का उच्चारण स्पष्ट एवं ऊँचे स्वर से किया जाता है।
मानसिक जप का अर्थ है मन ही मन में जाप करना।
और उपांशु जाप में जिव्हा एवं ओठों के साथ मंद स्वर में किया जाता है जिसे जप करने वाला ही सुन पाता है। 
मंत्रों का प्रारंभ शब्द ओम से ही होता है। हिन्दू बौद्ध जैन सिख आदि धर्मों में ऊँ अथवा ओंकार ध्वनि को पवित्र एवं ईश्वर का प्रतीक मना जाता है। ऊँ स्वयं ही एक मंत्र है एवं माना जाता है कि यह सृष्टि के उत्पन्न की प्रथम ध्वनि है।
मंत्रों में इतनी शक्ति होती है कि अनिष्टकारी बाधाएं दूर होती हैं शत्रु का नाश एवं अलौकिक शक्ति पाने से लेकर समस्त प्रकार के कार्यों की सिद्धि हो जाती है।
मंत्रोच्चार से बुद्धि का विकाश होता है स्मरण शक्ति बढ़ती है एवं मानसिक संतुलन रहता है तथा व्यक्ति को सकारात्मक बदलाव की अनुभूति होती है।
मंत्र प्रक्रिया पूर्णतः ध्वनि पर आधारित है। मंत्रों के जाप से उठने बाली तरंगें उनके शाब्दिक अर्थ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। योग एवं टेलीपैथी  ( अतीन्द्रिय बोध ) की भांति ही मंत्र विधा भी विज्ञान सम्मत है। यह एक ऐसा चमत्कारी विज्ञान है जिसके द्वारा कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है।